Climate Change: सदी के अंत तक गायब हो जाएंगे पृथ्वी से 3 में से 2 ग्लेशियर

दुनिया (World) में जिस तरह से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन (Greenhouse Emissions) की स्थितियां बन रही हैं, उससे ग्लोबल वार्मिंग (Global warming) के प्रभाव के नतीजे आने वाले समय में अच्छे रहने वाले नहीं हैं. नए अध्ययन में बताया गया है कि अगर ऐसे ही हालात रहे पृथ्वी में तमाम इलाकों मे मौजूद ग्लेशियरों (Glaciers) में काफी कमी होती जाएगी और तो इस सदी के अंत तक धरती के तीन में से दो ग्लेशयर गायब हो जाएंगे.

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) और ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) का कई प्रभावों में से एक धीरे धीरे ग्लेशियर (Glaciers) खत्म हो रहे हैं. फिलहाल जलवायु संबंधी अध्ययनों का जोर दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के कारण बर्फ का तेजी से पिघलना है. नए अध्ययन में इस बात का अनुमान लगाया गया है कि कि इस सदी के अंत तक अलग अलग उत्सर्जन के हालातमें ग्लेशिर की हानि की क्या स्थिति होगी. इस आकलन में संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP 27) की परिचर्चाएं भी शामिल की गई हैं. अध्ययन में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के प्रयासों के आधार पर इस सदी के अंत तक दुनिया खुल ग्लेशियर भार का कम से कम 26 और ज्यादा से ज्यादा 41 प्रतिशत हिस्सा गंवा सकती है. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

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सिविल एंड एन्वयार्नमेंटल इंजिनियरिंग के असिस्टेंट प्रोफेसर डेविड रोउन्स की अगुआई में हुए इस अंतरराष्ट्रीय प्रयास में इस तरह के अनुमान लगाए गए हैं. शोधकर्ताओं ने पाया है कि अगर भविष्य में जीवाश्म ईंधन पर इसी तरह से निवेश होता रहा तो 40 प्रतिशत से ज्यादा ग्लेशियर (Glaciers) भार एक दशक के अंदर खत्म हो जाएगा. और दुनिया में 80 प्रतिशत से ज्यादा ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे. यहां तक कि सबसे अच्छे मामले में भी, यानि कम उत्सर्जन (Emissions) के हालात में जहां वैश्विक औसत तपामान में इजाफा पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में +1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रहा , तो भी एक चौथाई ग्लेशियर भार और आधे ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

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अध्ययन में बताया गया है कि इन खत्म होने वाले अधिकांश ग्लेशियर (Glaciers) छोटे, यानि एक वर्ग किलोमीटर से कम के, होंगे. लेकिन उनकी हानि (Glacier mass loss) स्थानीय जलविज्ञान, पर्यटव, ग्लोशर से होने वाले दुष्प्रभाव और सांस्कृतिक मूल्यों पर नाकारात्मक प्रभाव के रूप में होगी. रोउन्स की टीम के साथियों का कराया गया स्थानीय ग्लेशयर प्रतिमान (Models) के लिए ज्यादा अच्छा होगा. वे उम्मीद करते हैं इससे नीतिनिर्माता तापमान कम करने का लक्ष्य 2.7 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रखने के लिए प्रेरित होंगे. जिसकी अनुशंसा COP 26 में की गई थी. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

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अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में इजाफा 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की स्थिति होने पर मध्य यूरोप, पश्चिमी कनाडा और अमेरिका में असमान रूप से प्रभाव पड़ेगा और 3 डिग्री बढ़ने पर तो इन इलाकों के ग्लेशियर (Glaciers)पूरी ही तरह से खत्म हो जाएंगे. रोउन्स ने पाया है कि जिस तरह से जलवायु में परिवर्तन पर ग्लेशियर प्रतिक्रिया कर रहे हैं उसमें लंबा समय लगता है. अभी उत्सर्जन कम करने से पहले हुए उत्सर्जन (Emissions) कम नहीं हो जाएंगे ना ही उनका जलवायु परिवर्तन (Climate Change) पर प्रभाव रोगा जा सकता है. यानि पूरी तरह से उतसर्जन रोकने का भी प्रबाव 30 से 100 सालों का समय लेगा जो ग्लेशियरों के भार हानि की दर पर दिखाई देगा. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

गलेशियर (Glaciers) का भार की कैसे हानि होती है इस पर बहुत सी प्रक्रियाओं का असर होता है. रोउन्स का अध्ययन केवल इस बात को आगे बढ़ाता है कि कैसे प्रतिमान (Models) अलग अलग प्रकार के ग्लेशियर से प्रभावित होते हैं. टाइडवाटर ग्लेशियर महासागरों (Oceans) में जाकर खत्म होते हैं जिससे इस अंतरक्रिया से बहुत सारे ग्लेशियर भार की हानि होती है. वहीं अवशेषों से ढके ग्लेशियर रेत, चट्टानों और पत्थरों से ढके होते हैं. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

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रोउन्स के पहले के कार्यों ने दर्शाया है कि ढके हुए अवशेषों (Debris) की मोटाई और बिखराव का पूरे इलाके में ग्लेशियर (Glaciers) के पिघलने की दर पर सकारात्मक या नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है और यह अवशेषों की मोटाई पर निर्भर करता है. नए अध्ययन में उन्होंने पाया है कि इन प्रक्रियाओं का उनके लगाए जा रहे अनुमानों पर कम असर होगा, लेकिन अलग अलग ग्लेशियर पर भार (Glacier mas loss) हानि में खासा अंतर देखने को मिलेगा. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इस प्रतिमान ने बहुत सारे आंकड़ों का उपयोग किया जिसमें ग्लेशियर (Glaciers) भार में बदलाव की विस्तृत और संपूर्ण तस्वीर पेश करने वाले हर ग्लेशियर के भार बदलावों (Glacier mass loss) के अवलोकन शामिल थे. इसके बाद पद्धतियों की जांच करने लिए अनुप्रयोगों के लिए सुपरकम्प्यूटर का उपयोग किया गया और साथ ही अलग-अलग उत्सर्जन (Emissions) स्थितियों को भी शामिल किया गया. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

 

NOTE – This article was originally published in hindi.news18 and can be viewed here

 

 

Tags: #climate, #climatechange, #climatecrisis, #climateemergency, #COP26, #Debris, #environment, #getgreengetgrowing, #glaciers, #globalwarming, #gngagritech, #greenstories, #oceans
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