
भीड़! एक शब्द! एक ऐसा शब्द, जिसका कि’ आज हमारे जीवन में विशेष और अति व्यापक प्रभाव है| कभी-कभी तो यह लगता है कि,यह भीड़ ना केवल एक प्रकार के तंत्र में परिवर्तित हो चुकी है, बल्कि इसने सबकी जिंदगियों को भी नियंत्रण में ले लिया है| आज हमारे चारों तरफ, नकारात्मक विचारों से लेकर छदम सूचनाओं की भीड़ है| अनगिनत विश्वाशों से लेकर अंधविश्वासों की भीड़ है| परंपरागत धारणाओं से लेकर आधुनिक तकनीकी युग में टूटते मानव मूल्यों की भीड़ है| जीवन इस भीड़ में कहीं खो गया है|
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हमरे राजनेता,धर्मगुरु,समाज सुधारक सभी जो जितने बड़े भीड़ अन्य जनसम्मोहक है,वह उतने ही शक्तिशाली और प्रभावशाली बन गए हैं| उचित अनुचित से लेकर, समाज और विश्व के सभी सामाजिक मापदंड, यह भीड़ नियंत्रक ही परिभाषित करते हैं| लगता तो ऐसा है कि यह पूरा समाज एक भीड़ में परिवर्तित होता जा रहा है| राजनेताओं के पास वादों की भीड़ है तो, धर्म गुरुओं के पास व्यक्तिगत दुखों को दूर करने की दवा की भीड़ है, बीमारियों की भीड़ के बीच डॉक्टर के पास इलाज के नुस्खों की भीड़ है, तो वकीलों के पास आपसी झगड़ों के निपटाने के तरीकों की भीड़ है, सोशल मीडिया पर मिथ्या उच्च विचार और शिक्षाओं की भीड़ है तो टीवी पर ऊंची आवाज में विचार शून्य बहस करते लोगों की भीड़ है|
लेकिन इन सबके बीच, इस भीड़ में सभी तो है, केवल हमारा अपना तो इनमें कोई भी नहीं हैI इस बढ़ती भीड़ के बीच सभी अकेले हैं| यहां मानवीय संवेदनाएँ,जो एक दूसरे को बांधती है, वह हमारे सामाजिक पटल से, अंतर्ध्यान हो चुकी हैI एक ऐसे संवेदनहीन समाज की संरचना हो रही है जहां किसी की तकलीफ से किसी को तकलीफ नहीं होतीI आपसी संबंध केवल वैश्विक जरूरतों तक सीमित हो गए हैंI सदियों से चलता आरहा सामंजस्य जैसे हवा में उड़ता जा रहा है|कहीं-कहीं हम व्यवहारिकता का लबादा ओढ़कर व्यक्तिगत और सामाजिक व सामाजिक जिम्मेदारियों की बात तो करते हैं, लेकिन वो भावनात्मक और संवेदनशीलता के अभाव में बिल्कुल ही खोखली लगती हैI शायद इस समाज की व जीवन की यही वास्तविकता हैI समाज में एक ऐसी पृष्ठभूमि का ताना बाना तैयार हो रहा है,जिसका भावी स्वरूप बहुत ही भयावह नजर आ रहा है|
भौतिक आवश्यकताएं ही, हमारे जीवन के आधार का एकमात्र आयाम बन गया हैI यही जीवन का एकमात्र उद्देश्य और लक्ष्य बन के रह गया हैI कुछ लोग अपनी पहचान एक सेवक के रूप में बनाते है,जो की व्यक्तिगत इच्छाओं का लबादा ओढ़ कर वाह-वाही लूटने के केवल आडंबर का आवरण के अलावा ,कुछ भी नहीं है I हम पूरी जिंदगी निकाल देते हैं और बहुत कुछ धन,मकान,पहचान व अन्य स्वरूपों मैं अपने लिए एकत्र कर लेते हैंI लेकिन इस सबके बीच क्या असुरक्षा का भाव बढ़ नहीं जाता हैI क्योंकि जो इकट्ठा किया उसका खोने का भाव हमेशा हमारे दिमाग को व्यथित व कुंद करता रहता हैI आज पूरे समाज में असुरक्षा की भावना क्यों नजर आती हैं? और क्यों हर इंसान स्वयं को इस कदर अकेला महसूस करा रहा है?
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अगर यही सब चीजें,अगर एक सामाजिक भाव से अर्जित की जाए तो उसमें असुरक्षा की भावना आ ही नहीं सकतीI लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही हैI भीड़ तंत्र को ही पूरा विश्व एकमात्र सच्चाई है के रूप में परिभाषित कर रहा है जो कि एक मिथक के अलावा कुछ नहीं है, जिसे कुछ समझदार लोग अपना नियंत्रण पैदा करने से प्रारंभ करने से लेकर, व पूर्ण नियंत्रण तक लेकर जाने में प्रयासरत हैI मानव समाज को भीड़ मैं इसलिए परिवर्तित किया जा रहा है, जिससे उसको हांका जा सके| और वह शायद किसी सीमा तक इसमें सफल भी हो चुके हैंI जिसे हम समाज कह सकते हैं उसका वास्तविक स्वरूप दिन प्रतिदिन वीभत्स होता जा रहा हैI त्रासदी यह है कि हम सब एक बहाव में बह रहे हैं जिसका अंत तो सबको पता है लेकिन रोकने का प्रयास कोई नहीं कर रहा हैI
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